बुधवार, 9 नवंबर 2011

गुर्जर प्रतिहार वंश का प्राचीन इतिहास

गुर्जर- प्रतिहार वंश
यशोवर्मन के पश्चात कुछ समय तक के मथुरा प्रदेश के इतिहास की पुष्ट जानकारी नहीं मिलती । आठवीं शती के अन्त में उत्तर भारत में गुर्जर प्रतीहारों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी । गुर्जर लोग पहले राजस्थान में जोधपुर के आस-पास निवास करते थे । इस वजह से उनके कारण से ही लगभग छठी शती के मध्य से राजस्थान का अधिकांश भाग 'गुर्जरन्ना-भूमि' के नाम से जाना था । आज तक यह विवाद का विषय है कि गुर्जर भारत के ही मूल निवासी थे या हूणों आदि की ही भाँति वे कहीं बाहर से भारत आये थे । भारत में सबसे पहले गुर्जर राजा का नाम हरिचंद्र मिलता है, जिसे वेद-शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण कहा गया है । उसकी दो पत्नियाँ थी- एक ब्राह्मण स्त्री से प्रतीहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति और भद्रा नाम की एक क्षत्रिय पत्नी से प्रतीहार-क्षत्रिय वंश हुआ, प्रतीहार-क्षत्रिय वंश के पुत्रों ने शासन का कार्य भार संभाला । गुप्त-साम्राज्य के समाप्त होने के बाद हरिचंद्र ने अपने क्षत्रिय-पुत्रों की मदद से जोधपुर के उत्तर-पूर्व में अपने राज्य को विस्तृत किया । इनका शासन-काल सम्भवतः 550 ई. से 640 ई. तक रहा । उनके बाद प्रतीहार-क्षत्रिय वंश के दस राजाओं ने लगभग दो शताब्दियों तक राजस्थान तथा मालवा के एक बड़े भाग पर शासन किया । इन शासकों ने पश्चिम की ओर से बढ़ते हुए अरब लोगों की शक्ति को रोकने का महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।
अरब लोगों के आक्रमण
सातवीं शती में अरबों ने अपनी शक्ति को बहुत संगठित कर लिया था । सीरिया और मिस्त्र पर विजय के बाद अरबों ने उत्तरी अफ्रीका, स्पेन और ईरान पर भी अपना अधिकार कर लिया । आठवीं शती के मध्य तक अरब साम्राज्य पश्चिम में फ्रांस से लेकर पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान तक फैल गया था । 712 ई॰ में उन्होंनें सिंध पर हमला किया । सिंध का राजा दाहिर(दाहर) ने बहुत वीरता से युद्ध किया और अनेक बार अरबों को हराया । लेकिन युद्ध में वह मारा गया और सिंध पर अरबों का अधिकार हो गया । इसके बाद अरब पंजाब के मुलतान तक आ गये थे । उन्होंने पश्चिम तथा दक्षिण भारत को भी अधिकार में लेने की बहुत कोशिश की लेकिन प्रतीहारों एवं राष्ट्रकूटों ने उनकी सभी कोशिशों को नाकाम कर दिया । प्रतीहार शासक वत्सराज के पुत्र नागभट ने अरबों को हराकर उनकी बढ़ती हुई शक्ति को बहुत धक्का लगाया ।
कन्नौज के प्रतिहार शासक
नवीं शती के शुरु में कन्नौज पर प्रतिहार शासकों का अधिकार हो गया था । वत्सराज के पुत्र नागभट ने संभवतः 810 ई. में कन्नौज पर विजय प्राप्त कर अपने अधिकार में लिया । उस समय दक्षिण में राष्ट्रकूटों तथा पूर्व में पाल-शासकों बहुत शक्तिशाली थे । कन्नौज पर अधिकार करने के लिए ये दोनों राजवंश लगे हुए थे । पाल-वंश के शासक धर्मपाल (780-815 ई॰) ने बंगाल से लेकर पूर्वी पंजाब तक अपने राज्य को विस्तृत कर लिया और आयुधवंशी राजा चक्रायुध को कन्नौज का शासक बनाया था । नागभट ने धर्मपाल को हराकर चक्रायुध से कनौज का राज्य छीन लिया और सिंध प्रांत से लेकर कलिंग तक के विशाल भूभाग पर नागभट का अधिकार हो गया । मथुरा प्रदेश इस समय से दसवीं शती के अंत तक गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य के अंतर्गत रहा ।
नागभट तथा मिहिरभोज
इसके कुछ समय बाद ही नागभट को एक अधिक शक्तिशाली राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय से युद्ध करना पड़ा । नागभट उसका सामना न कर सका और राज्य छोड़ कर भाग गया । गोविंद तृतीय की सेनाएं उत्तर में हिमालय तक पहँच गई किंतु महाराष्ट्र में अराजकता फैल जाने के कारण गोविंद को दक्षिण लौटना पड़ा । नागभट के बाद उसका पुत्र रामभद्र लगभग 833 ई॰ में कन्नौज साम्राज्य का राजा हुआ । उसका बेटा मिहिरभोज (836 -885 ईं0 )बड़ा प्रतापी व शक्तिशाली राजा हुआ । उसके भी पालों और राष्ट्रकूटों के साथ युद्ध चलते रहे । पहले तो भोज को कई असफलताओं मिली, परंतु बाद में उसने भारत की दोनों प्रमुख शक्तियों को हराया । उसके अधिकार में पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मालवा भी आ गये । इतने विशाल साम्राज्य को व्यवस्थित करने का श्रेय मिहिरभोज को ही जाता है ।
महेन्द्रपाल (लगभग 885 - 910 ई॰)
मिहिरभोज का पुत्र महेन्द्रपाल अपने पिता के ही समान था । उसने अपने शासन में उत्तरी बंगाल को भी प्रतीहार साम्राज्य में मिला लिया था । हिमालय से लेकर विंध्याचल तक और बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक प्रतिहार साम्राज्य का शासन हो गया था । महेन्द्रपाल के शासन काल के कई लेख कठियावाड़ से लेकर बंगाल तक में प्राप्त हुए है । इन लेखों में महेन्द्रपाल की अनेक उपाधियाँ मिलती हैं । 'महेन्द्रपुत्र', 'निर्भयराज', 'निर्यभनरेन्द्र' आदि उपाधियों से महेन्द्रपाल को विभूषित किया गया था ।
महीपाल (912 - 944)
महेन्द्रपाल के दूसरे बेटे का नाम महीपाल था और वह अपने बड़े भाई भोज द्वितीय के बाद शासन का अधिकारी हुआ । संस्कृत साहित्य के विद्वान राजशेखर इसी के शासन काल में हुए, जिन्होंने महीपाल को 'आर्यावर्त का महाराजाधिराज' वर्णित किया है और उसकी अनेक विजयों का वर्णन किया है । अल-मसूदी नामक मुस्लिम यात्री बग़दाद से लगभग 915 ई॰ में भारत आया । प्रतीहार साम्राज्य का वर्णन करते हुए इस यात्री ने लिखा है, कि उसकी दक्षिण सीमा राष्ट्रकूट राज्य से मिलती थी और सिंध का एक भाग तथा पंजाब उसमें सम्मिलित थे । प्रतिहार सम्राट के पास घोड़े और ऊँट बड़ी संख्या में थे । राज्य के चारों कोनों में सात लाख से लेकर नौ लाख तक फ़ौज रहती थी । उत्तर में मुसलमानों की शक्ति को तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट शक्ति को बढ़ने से रोकने के लिए इस सेना को रखा गया था ।*
राष्ट्रकूट-आक्रमण
916 ई॰ के लगभग दक्षिण से राष्ट्रकूटों ने पुन: एक बड़ा आक्रमण किया । इस समय राष्ट्रकूट- शासक इन्द्र तृतीय का शासन था । उसने एक बड़ी फ़ौज लेकर उत्तर की ओर चढ़ाई की और उसकी सेना ने बहुत नगरों को बर्बाद किया, जिसमें कन्नौज प्रमुख था । इन्द्र ने महीपाल को हराने के बाद प्रयाग तक उसका पीछा किया । किन्तु इन्द्र को उसी समय दक्षिण लौटना पड़ा । इन्द्र के वापस जाने पर महीपाल ने फिर से अपने राज्य को संगठित किया किन्तु राष्ट्रकूटों के हमले के बाद प्रतिहार राज्य संम्भल नही पाया और उसका गौरव फिर से लौट कर नहीं आ सका । लगभग 940 ई॰ में राष्ट्रकूटों ने उत्तर में बढ़ कर प्रतिहार साम्राज्य का एक बड़ा भाग अपने राज्य में मिला लिया । इस प्रकार प्रतिहार शासकों का पतन हो गया ।
परवर्ती प्रतीहार शासक (लगभग 944 - 1035 ई॰)
महीपाल के बाद क्रमशः महेंन्द्रपाल, देवपाल, विनायकपाल, विजयपाल, राज्यपाल, त्रिलोचनपाल तथा यशपाल नामक प्रतिहार शासकों ने राज्य किया । इनके समय में कई प्रदेश स्वतंत्र हो गये । महाकोशल में कलचुरि, बुदेंलखंड में चंदेल, मालवा में परमार, सौराष्ट्र में चालुक्य, पूर्वी राजस्थान में चाहभान, मेवाड़ में गुहिल तथा हरियाणा में तोमर आदि अनेक राजवंशों ने उत्तर भारत में स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया । इन सभी राजाओं में कुछ समय तक शासन के लिए खींचतान होती रही।
प्रतीहार-शासन में मथुरा की दशा
नवीं शती से लेकर दसवीं शतीं के अंत तक लगभग 200 वर्षों तक मथुरा प्रदेश गुर्जर प्रतीहार-शासन में रहा । इस वंश में मिहिरभोज, महेंन्द्रपाल तथा महीपाल बड़े प्रतापी शासक हुए । उनके समय में लगभग पूरा उत्तर भारत एक ही शासन के अन्तर्गत हो गया था । अधिकतर प्रतीहारी शासक वैष्णव या शैव मत को मानते थे । उस समय के लेखों में इन राजाओं को विष्णु, शिव तथा भगवती का भक्त बताया गया है । नागभट द्वितीय, रामभद्र तथा महीपाल सूर्य-भक्त थे । प्रतिहारों के शासन-काल में मथुरा में हिंदू पौराणिक धर्म की बहुत उन्नति हुई । मथुरा में उपलब्ध तत्कालीन कलाकृतियों से इसकी पुष्टि होती है । नवी शती के प्रारम्भ का एक लेख हाल ही में श्रीकृष्ण जन्मस्थान से मिला है । इससे राष्ट्रकूटों के उत्तर भारत आने तथा जन्म-स्थान पर धार्मिक कार्य करने का ज्ञान होता है । संभवत: राष्ट्रकूटों ने अपने हमलों में धार्मिक केन्द्र मथुरा को कोई हानि नहीं पहुँचाई । नवीं और दसवीं शती में कई बार भारत की प्रमुख शक्तियों में प्रभुत्व के लिए संघर्ष हुए । इन सभी का मुख्य उद्देश्य भारत की राजधानी कन्नौज को जीतना था । मथुरा को इन युद्धों से कोई विशेष हानि हुई हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता ।
उत्पत्त्ति
गुर्जर अभिलेखो के हिसाब से ये सुर्यवन्शी या रघुवन्शी है।प्राचीन महाकवि राजसेखर ने गुर्जरो को रघुकुल-तिलक तथा रघुग्रामिनी कहा है। 7 वी से 10 वी शतब्दी के गुर्जर शिलालेखो पर सुर्यदेव की कलाकर्तीया भी इनके सुर्यवन्शी होने की पुष्ति करती है। राजस्थान् मै आज भी गुर्जरो को सम्मान से मिहिर बोलते है, जिसका अर्थ सुर्य होता है।
कुछ इतिहासकरो के अनुसार गुर्जर मध्य एशिया के कॉकेशस क्षेत्र ( अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए आर्य योद्धा थे।कुछ जानकार इन्हे विदेशी भी बताते है क्योन्कि गुर्जरो का नाम एक अभिलेख मे हूणों के साथ मिलता है, परन्तु इसका कोई एतिहासिक प्रमाण नही है।
सन्सक्रित के विद्वानो के अनुसार गुर्जर सन्सक्रित शब्द है, जिसका अर्थ शत्रु विनाशक होता है।प्राचीन महाकवि राजसेखर ने गुर्जर नरेश महिपाल को अपने महाकाव्य मे दहाडता गुर्जर कह कर सम्बोदित किया है।
कुछ इतिहासकर कुषाणो को गुर्जर बताते है तथा कनिष्क के रबाटक शिलालेख पर अन्कित 'गुसुर' को गुर्जर का ही एक रूप बताते है।उनका मानना है कि गुशुर या गुर्जर लोग विजेता के रूप मे भारत मे आये क्योन्कि गुशुर का अर्थ उच्च कुलिन होता है।
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इतिहास के अनुसार 5वी शदी मे भीनमाल गुर्जर सम्राज्य की राजधानी थी तथा इसकी स्थापना गुर्जरो ने की थी।भरुच का सम्राज्य भी गुर्जरो के अधीन था|चीनी यात्री ह्वेन्सान्ग अपने लेखो मे गुर्जर सम्राज्य का उल्लेख करता है तथा इसे kiu-che-lo बोलता है।
छठी से 12 वीं सदी में गुर्जर कई जगह सत्ता में थे। गुर्जर-प्रतिहार वंश की सत्ता कन्नौज से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात तक फैली थी।मिहिरभोज को गुर्जर-प्रतिहार वंश का बड़ा शासक माना जाता है और इनकी लड़ाई बेन्गाल् के पाल वंश और दक्शिन भारत के राष्ट्रकूट शासकों से होती रहती थी।12वीं सदी के बाद प्रतिहार वंश का पतन होना शुरू हुआ और ये कई हिस्सों में बँट गए।अरब आक्रान्तो ने गुर्जरो की शक्ति तथा प्रसाशन की अपने अभिलेखो मे भुरि-भुरि प्रशन्शा की है।
इतिहासकार बताते है कि मुगल काल से पहले तक लगभग पुरा राजस्थान तथा गुजरात, गुर्जरत्रा (गुर्जरो से रक्षित देश) या गुर्जर-भुमि के नाम से जाना जाता था।अरब लेखको के अनुसार गुर्जर उन्के सबसे भयन्कर शत्रु थे तथा उन्होने ये भी कहा है की अगर गुर्जर नही होते तो वो भारत पे 12 वी शदी से पहले ही अधिकार कर लेते।
18 वी शदी म भी गुर्जरो के कुछ छोटे छोटे राज्य थे।दादरी के गुर्जर राजा, दरगाही सिन्ह के अधीन 133 ग्राम थे।मेरठ का राजा गुर्जर नैन सिन्ह था तथा उसने परिक्शित गढ का पुन्रनिर्माण करवाया था। भारत गजीटेयर के अनुसार 1857 की क्रान्ति मे, गुर्जर तथा मुसलमान् रजपुत, ब्रिटिश के बहुत बुरे दुश्मन साबित हुए।गुर्जरो का 1857 की क्रान्ति मे भी अहम योगदान रहा है।कोटवाल धानसिन्ह गुर्जर 1857 की क्रान्ति का शहीद था
आधुनिक स्तिथि
प्राचीन काल में युद्ध कला में निपुण रहे गुर्जर मुख्य रूप से खेती और पशुपालन के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।गुर्जर अच्छे योद्धा माने जाते थे और इसीलिए भारतीय सेना में अभी भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है। ये गुर्जर राजस्थान, हरियानण, मध्यप्रदेश्, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में फैले हुए हैं। राजस्थान में सारे गुर्जर हिंदू हैं।सामान्यत: गुर्जर हिन्दु , सिख, मुस्लिम आदि सभी धर्मो मे देखे जा सकते हैं।मुस्लिम तथा सिख गुर्जर, हिन्दु गुर्जरो से ही परिवर्तित हुए थे।पाकिस्तान में गुजरावालां, फैसलाबाद और लाहौर के आसपास इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है।

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